Saturday, September 8, 2018

तुम मेरा घर हो

तुम मेरा घर हो
इन दीवारों के बीच कहीं
उम्र कटी हो, वो सफर हो
तुम मेरा घर हो!

जब रंग रहे थे इसका रोया रोया
तुम साथ थी मेरे, क्या बात थी तेरे
चेहरे की रंगत का यूँ असर हुआ
अँधेरे में भी चमक रहा है
ये आलीशान महल मेरा!
आज ना जाने तुम किधर हो
इन् दीवारों के रंगों में सिमटी
शायद इधर हो,
तुम मेरा घर हो!

तुमसे सीखा कम ही काफी है
ज़्यादा तो एक नशा है, बेवजह है
उम्मीद में जीना उसकी!
अब एक बिस्तर पर मेरी एक तकिया है
ओढ़ ली इस चादर में मैंने
अपने सारे सपनों को जीया है
तो क्या हुआ
इसमें तनहा रातें मेरी अकेली हैं
ठन्डे जम रहे मेरे पैर मेरी साँसों में
तेरी सांसें नहीं है
पर आंच तेरी यादें
ये मानो दोपहर हो,
जब तुम मेरा घर हो!

कैसे मैंने बैठ कर तुझे सुना था
तेरी चेहेल पहल से होती आवाज़ें
इस ख़ामोशी में कितनी साफ़ है
महक उस लेहेर की तेरे जाने के बाद
वो चिमटा रखना, रोटी पकाने के बाद
क्यों तेरी रोटियों से प्यारी मुझे कोई खुशबु नहीं
क्यों बिना हाथ धोये खाना खाने अब बैठूं नहीं?
अब ये बहार का खाना जिसका
जिसका हर एक निवाला ज़हर हो,
और तुम मेरा घर हो!

कौन ले गया तुम्हे, क्यों जाना पड़ा?
हज़ारों बार पूंछा है हर दिन
उस निवाले से भी जो तेरे लिए बनाता हूँ
मानो खा ही लोगी, कुछ ऐसे आगे बढ़ाता हूँ
तकिये को ऐसे गले लगाता हूँ
मानो तुम हो पर गुम हो
ऐसा मान रहा हूँ
बोहोत जल्द मैं यहाँ से जा रहा हूँ!
क्यूंकि घर गांव जैसा होना चाहिए
अपने हों, अपना हो
खाली हो पर सपना हो
महक हो आवाज़ें हो
रिश्ते हो रिवाजें हो
और तुम हो
क्यूंकि घर मेरा एक गांव
पता चाहे फिर शहर हो

जहाँ तुम मेरा घर हो

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